Tuesday 25 December 2018

Swami vivekananda motivational qoutes and biography

नए साल में पढ़े स्वामी विवेकानंद जी के विचार और motivational qoutes और सफल बने

swami vivekananda qoutes by motivational speaker kotarjpawan


12 जनवरी, 1863 को स्वामी विवेकानन्द का जन्म कलकत्ता के एक प्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त के घर हुआ। माता प्रेम से उन्हें वीरेश्वर कहती थी पर नामकरण संस्कार के समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ रखा गया। बचपन से ही नरेन्द्रनाथ में विलक्षण प्रतिभा के लक्षण दिखते थे। एक तरफ वे अत्यंत ही चंचल थे तो दूसरी तरफ उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। सात वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें कृतिवास की बंगला रामायण याद हो गयी थी।


स्वामी विवेकानन्द
स्वामी विवेकानन्द


नरेन्द्रनाथ एक मेघावी छात्र थे। 1879 में प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने कलकत्ता के सबसे अच्छे महाविद्यालय- प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। बाद में वे एक दूसरे महाविद्यालय में भी पढ़े। विवेकानन्द का अंग्रेजी और बंगला- दोनो ही भाषाओं पर अधिकार था। धर्मशास्त्र, इतिहास, विज्ञान आदि विषयों में इनकी गहरी रूचि थी। वे विद्याथ्री जीवन में अत्यन्त ही क्रियाशील थे एवं विभिन्न क्रियाकलापों में रूचि लेते थे। 


परम्परागत भारतीय व्यायाम एवं कुश्ती से लेकर क्रिकेट जैसे आधुनिक खेल में उनकी रूचि थी। बी0ए0 की परीक्षा के उपरांत नरेन्द्र के पिता उनका विवाह कराना चाहते थे पर नरेन्द्र गृहस्थ का जीवन जीना नहीं चाहते थे। पिता की अकस्मात् मृत्यु ने विवाह के प्रसंग को रोक दिया। पर नरेन्द्र के कन्धे पर पूरे परिवार का बोझ आ पड़ा।

नरेन्द्रनाथ को कोर्इ भी बन्धन या मोह बाँध नहीं सका। सत्य की खोज में वे ब्रह्मसमाज की सभाओं में आने-जाने लगे। लेकिन उनकी ध् ार्म-पिपासा वहाँ शांत नहीं हो पार्इ। उन्हें सत्य एवं ब्रह्म का साक्षात्कार स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिलने के उपरांत ही हुआ। चौबीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रनाथ ने सन्यास ग्रहण कर लिया- वे अपने योग्य गुरू रामकृष्ण परमहंस के योग्यतम शिष्य ‘स्वामी विवेकानन्द’ के रूप में ‘जगत प्रसिद्ध’ हुए। विवेकानन्द ने परिब्राजक के रूप में कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त भारत का भ्रमण किया। इस अनवरत भ्रमण ने जहाँ स्वामी विवेकानन्द के ज्ञान को बढ़ाया वहीं वे भारत के दीन-दुखियों की विवशता को भी अपनी आँखों से देख सके। स्वामी जी जहाँ भी गये लोग उनकी विद्वता, तेज और संकल्प-शक्ति से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। 
स्वामी
विवेकानन्द की चरम प्रसिद्धि का क्षण 1893 में आया जब वे संयुक्त राज्य अमेरिका के शिकागो नगर में आयोजित सर्वधर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हुए। शिकागो धर्म सम्मेलन में सम्मिलित होने में होनी वाली कठिनाइयों के संदर्भ में विवेकानन्द स्वंय कहते हैं- ‘‘आज से चार वर्ष पहले मैं अमेरिका जा रहा था- सात समुद्र पार बिना किसी जान पहचान के, एक धनहीन, मित्रहीन, अज्ञात सन्यासी के रूप में।’’ अमेरिका पँहुचने के बाद की स्थिति के बारे में वे लिखते हैं- ‘‘मेरे पास रूपये बहुत कम थे और वे शीघ्र समाप्त हो गए। इधर जाड़ा भी आ गया और मेरे पास थे सिर्फ गरमी के कपड़े। इस घोर शीतप्रधान देश में आखिर क्या करूँ, यह कुछ सूझता न था। भीख माँगने पर जेल में ठूँस दिया जाता।’’ इन विपरीत परिस्थितियों में भी स्वामी विवेकानन्द ने हिम्मत नहीं हारी। उनके ‘ब्रदरर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ के सम्बोधन मात्र से सभा स्थल करतल ध्वनि से गूँज उठा। इस अभिभाषण से विवेकानन्द विश्व भर में सर्वश्रेष्ठ धार्मिक पुरूष के रूप में स्वीकार किए ही गए, हिन्दू धर्म एवं भारत की आध्यात्मिक परम्परा की श्रेष्ठता भी पूरे विश्व ने स्वीकार कर ली। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की विजय-पताका पूरे विश्व में फहरार्इ।

अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों के प्रसार, वेदान्त ज्ञान के अध्ययन एवं प्रचार तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए स्वामी विवेकानन्द ने 1 मर्इ, 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। विवेकानन्द जीवन पर्यन्त अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्यशील रहे। वे एक महान ऋषि परम्परा के प्रतिनिधि थे, जिनका देहावसान 39 वर्ष की अल्पावस्था में हो गया। भारत के आध्यात्मिक गगन के चमकते सूरज का भरी दोपहरी में अस्त हो गया। पर आज भी स्वामी विवेकानन्द के वचन एवं कार्य हमारे मार्ग को आलोकित करने में सक्षम है।

स्वामी विवेकानन्द का जीवन-दर्शन 

स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त-दर्शन की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की तथा निराशा एवं कुंठा के दल-दल में फँसी हुर्इ भारतीय जनता को जीवन का नया पथ दिखाया।

स्वामी विवेकानन्द का वेदों और उपनिषदों पर अटूट विश्वास था। उन्होंने पूरे विश्व में वेदान्त दर्शन को सर्वजनीन, सार्वभौमिक दर्शन के रूप में प्रचारित-प्रसारित किया। स्वामी विवेकानन्द के नव्य वेदान्त दर्शन में आधुनिक वैज्ञानिक खोजों तथा समकालीन विचारों को स्थान मिला। स्वामी जी का दृढ़ विश्वास था कि देश की भैतिक उन्नति एवं सामान्य जन की समृद्धि उतना ही आवश्यक है जितना व्यक्ति और समाज की आध्यात्मिक उन्नति। विवेकानन्द का सम्पूर्ण दर्शन गरीबी के अभिशाप में डूबी भारतीय जनता के कल्याण की कामना है। वे प्राय: कहा करते थे- ‘‘रोटी का प्रश्न हल किये बिना भूखे मनुष्य धार्मिक नहीं बनाये जा सकते। इसलिए रोटी का प्रश्न हल करने का नया मार्ग बताना सबसे मुख्य और सबसे पहला कर्तव्य है।’’

विवेकानन्द शंकराचार्य की ही तरह सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा को ही मानते थे। वे यह भी स्वीकार करते थे कि यह वस्तु-जगत ब्रह्म की माया शक्ति के द्वारा निर्मित है, परन्तु ये माया और जगत को असत्य नहीं मानते थे, पर वे माया एवं जगत के मूल तत्व ब्रह्म को अन्तिम सत्य मानते थे। वे शंकराचार्य की ही तरह मानते थे कि आत्मा ब्रह्म का अंश होती है, इसलिए वह भी अपनें में पूर्ण होती है। शंकर की तरह विवेकानन्द भी मानते थे कि मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य मुक्ति है। परन्तु विवेकानन्द द्वारा प्रस्तावित मुक्ति अधिक व्यापक है। उनका विश्वास था कि जब तक मनुष्य शारीरिक दुर्बलता, मानसिक दासता, आर्थिक अभाव एवं हीनता की भावना से मुक्त नहीं होता तब तक उसकी मुक्ति संभव नहीं है।

विवेकानन्द ने ज्ञान को दो भागों में विभाजित किया- वस्तु जगत का ज्ञान और आत्म तत्व का ज्ञान। एक प्रगतिशील आदर्शवादी की तरह विवेकानन्द ने इन दोनों ही तरह के ज्ञानों को सच माना। और कहा कि दोनों ही तरह का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। वस्तु जगत के ज्ञान के लिए प्रत्यक्ष विधि और आत्म तत्व के ज्ञान के लिए अध्ययन, मनन और सत्संग पर जोर दिया।

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। वस्तुत: वे आत्मानुभूति, मुक्ति और र्इश्वर प्राप्ति को समानाथ्री मानते थे। स्वामी जी मानते थे कि सभी मनुष्यों में र्इश्वर का निवास है अत: मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है। मनुष्य को मन, वचन और कर्म से शुद्ध होकर अर्थोपार्जन करना चाहिए, दीन-हीनों की सेवा करनी चाहिए और योग मार्ग द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करते हुए मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।

धर्म 

विवेकानन्द के अनुसार भविष्य के धार्मिक आदर्शों को सभी धर्मों में जो कुछ भी सुन्दर और महत्वपूर्ण है, उन सबको एक साथ लेकर चलना पड़ेगा। र्इश्वर सम्बन्धी सभी सिद्धान्त- सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम अथवा आदर्श मानव धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत आना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे। उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया है। उनका कहना था कि धर्म के मूल लक्ष्य के विषय में सभी धर्म एकमत हैं। आत्मा की भाषा एक है जबकि राष्ट्रों की भाषाएँ विभिन्न हैं, उनकी परम्परायें और जीने की शैली भिन्न है। धर्म आत्मा से सम्बन्धित है लेकिन वह विभिन्न राष्ट्रों, भाषाओं और परम्पराओं के माध्यम से प्रकट होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संसार के सभी धर्मों में मूल आधार एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हैं।

स्वामी विवेकानन्द धर्म को भारत राष्ट्र का जीवन-केन्द्र या प्रधान-स्वर मानते हैं। वे मानते थे कि भारतवर्ष में धर्म ही जीवन का केन्द्र है और वही राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का प्रधान स्वर है। यदि कोर्इ राष्ट्र अपनी स्वभाविक जीवन शक्ति को दूर फेंक देने की चेष्टा करे तो वह राष्ट्र काल-कवलित हो जाता है। अत: विवेकानन्द भारत में धर्म प्रचार आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि भारतवर्ष में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म प्रचार आवश्यक है। वे कहते हैं ‘‘भारत को सामाजिक अथवा राजनीतिक विचारों से प्लावित करने से पहले आवश्यक है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाय।’’

सत्य 

विवेकानन्द के अनुसार, विश्व में सत्य एक है और मानव उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं।

अपने भाषण ‘मेरी कार्यविधि’ में स्वामीजी कहते है ‘‘हमें शक्ति चाहिए, इसलिए अपने आप पर विश्वास करो। अपने स्नायुओं को शक्तिशाली बनाओ। हमें लोहे की पेशियां और फौलाद के स्नायु चाहिए। हम बहुत रो चुके हैं, अब और रोना नहीं, अपने पैरो पर खड़े हो जाओ और मानव बनो। हमें मानव गठन करने वाला धर्म चाहिए, हमें मनुष्य गठन करने वाले सिद्धान्त चाहिए, चारो ओर हमें मानव गठन करने वाली शिक्षा चाहिए। सत्य की परीक्षा यह है : कोर्इ भी वस्तु जो तुम्हें शरीर से, बुद्धि से या आध्यात्मिकता से निर्बल करती है, उसे विष समझ कर त्याग दो, इसमें कोर्इ जीवन नहीं है, यह सत्य नहीं हो सकती। सत्य माने पवित्रता, सत्य माने समग्र ज्ञान, सत्य द्वारा बल प्राप्ति होनी चाहिए।’’ सत्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते है- ‘‘सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे।’’

अहिंसा 

विवेकानन्द अहिंसा को श्रेष्ठ मानते है पर हिंसा को सर्वथा त्याज्य नहीं। उनके अनुसार गृहस्थ को अपने शत्रु के सामने दृढ़ होना चाहिए और गुरू और बन्धुजनों के समक्ष नम्र।... यदि वह शत्रु के समक्ष वीरता नहीं दिखाता है, तो वह अपने कर्तव्य की अवहेलना करता है किन्तु अपने बन्धु-बान्धव , आत्मीय स्वजन एवं गुरू के निकट उसे गौ के समान शांत और निरीह भाव अवलम्बन करना चाहिए।’’ विवेकानन्द के अनुसार अहिंसा की कसौटी है, र्इष्र्या का अभाव।

त्याग 

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार त्याग का अर्थ है, स्वार्थ का सम्पूर्ण अभाव। यूरोप और अमेरिका में भोग पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। इसलिए स्वामी जी ने वहाँ के निवासियों को संयम और त्याग की शिक्षा दी। किन्तु भारत में दरिद्रता का साम्राज्य था। यहाँ के लोग धनाभाव के कारण जीवन के ऊँचे गुणों से विमुक्त हो गए। अत: उन्होंने भारतवासियों को जो उपदेश दिया वह केवल धर्म के लिए नही था, प्रत्युत उन्होंने यहाँ के लोगो में असन्तोष जगाना चाहा और उन्हें कर्म की भावना से आन्दोलित करने की चेष्टा की। विवेकानन्द कहते है- ‘‘त्याग के बिना कोर्इ सिद्धि संभव नहीं है। त्याग मानवीय चेतना का पवित्रतम, सर्वोत्तम साध्य है।’’

मानव सेवा 

विवेकानन्द ने यह सीख दी कि मानव सेवा ही र्इश्वर सेवा है। उससे मुँह मोड़ना धर्म नहीं है। वे कहते थे अगर तुम्हें भगवान की सेवा करनी है तो मानव की सेवा करो। वह भगवान ही रोगी मनुष्य, दरिद्र मनुष्य और सब प्रकार के मनुष्यों के रूप में तुम्हारे सामने खड़ा है। इसलिए उन्होंने कहा- ‘‘तुम्हें सिखाया गया है कि अतिथि देवो भव, मातश् देवो भव, पितश् देवो भव, पर अब मैं तुमसे कहता हूँ दरिद्र देवो भव।’’

विवेकानन्द कहते है कि ‘‘विश्व में सन्यासी क्यों जन्म लेते हैं? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने, विधवा के आँसू पोंछने, पुत्र-वियोग से पीड़ित अबलाओं के मन को शान्ति देने, सर्व-साधारण को जीवन-संग्राम के लिए तैयार करने, शास्त्र के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और परमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक से सबके अन्दर जो ब्रह्मसिंह सुप्त है, उसे जागृत करने।’’

जाति व्यवस्था के विरोधी 

विवेकानन्द भारत में व्याप्त सामाजिक बुरार्इयों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते रहे। वे चाण्डाल में र्इश्वर का निवास महसूस करते थे। उन्हीं के शब्दों में ‘‘यदि मैं अत्यन्त नीच चाण्डाल होता, तो मुझे और भी आनन्द आता, क्योंकि मैं उन महापुरूष का शिष्य हूँ जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी एक चाण्डाल के पाखाने की सफार्इ लगातार कर्इ दिनों तक की थी। सबका सेवक बनकर ही एक हिन्दू अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।

सामाजिक व्याधि के प्रतिकार का उपाय: शिक्षा 

स्वामी विवेकानन्द का मानना था कि सामाजिक व्याधियों का प्रतिकार बाहरी उपायों द्वारा नहीं होगा, इसके लिए भीतरी उपायों का अवलम्बन करना होगा, मन पर कार्य करने की चेष्टा करनी होगी। विवेकानन्द कहते हैं ‘‘समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षा-दान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी।’’

देशभक्ति की आवश्यकता 

विवेकानन्द एक प्रखर राष्ट्र भक्त थे और वे सभी भारतीयों को राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत देखना चाहते थे। वे भारतीय नवयुवकों को सम्बोधित करते हुए कहते है ‘‘मेरे भावी देशभक्तो, हृदयवान बनो। क्या तुम हृदय से यह अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तान आज पशुतुल्य हो गयी है? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखों मर रहे हैं? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढ़क लिया है? यदि ‘हाँ’ तो जानो कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है।’’ इस समस्या के निवारण हेतु कर्तव्य पथ निश्चित करना स्वामी विवेकानन्द के अनुसार दूसरी सीढ़ी है और उस पथ पर दृढ़ता से चलना देशभक्त की निशानी है।

राष्ट्रीयता के विकास एवं राष्ट्र को जड़भावापन्न स्थिति से निकालने का उपाय बताते हुए विवेकानन्द कहते हैं- ‘‘पहले राष्ट्र को शिक्षित करो, अपनी निजी विधायक संस्थाएँ बनाओ, फिर तो नियम आप ही आप आ जायेंगे। जिस शक्ति के बल से, जिसके अनुमोदन से विधान का गठन होगा, पहले उसकी सृष्टि करो। आज राजा नहीं रहे; जिस नयी शक्ति से, जिस नये दल की सम्मति से नयी व्यवस्था गठित होगी, वह लोक शक्ति कहाँ है? उसी लोक शक्ति को संगठित करो। अतएव समाज-सुधार के लिए भी, प्रथम कर्तव्य है- लोगों को शिक्षित करना। और जब तक यह कार्य सम्पन्न नहीं होता, तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’’

इस तरह से स्वामी विवेकानन्द भारत को एक स्वतंत्र, शक्तिशाली प्रजातांत्रिक राष्ट्र बनाने के लिए जन-सामान्य की शिक्षा अनिवार्य मानते थे।

प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृतियों का समन्वय 

स्वामी विवेकानन्द मानते थे कि प्राच्य एवं पाश्चात्य दोनो ही संस्कृतियों में गुण और दोष हैं। इनकी कमियों का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं- ‘‘यहाँ की भूमि विधवाओं के आँसू से कभी-कभी तर होती हैं, तो पाश्चात्य देश का वायु-मण्डल अविवाहित स्त्रियों की आहों से भरा रहता है। यहाँ का जीवन गरीबी की चपेट से जर्जरित है, तो वहाँ पर लोग विलासिता के विष से जीवन्मश्त हो रहें है।... बुराइयाँ सभी जगह हैं।... रोग की जड़ साफ कर देना ही ठीक-ठाक उपाय है।  अत: दोनों ही संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों का समन्वय किया जाना चाहिए।

शिक्षा-दर्शन 

स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है। मानव में शक्तियाँ जन्म से ही विद्यमान रहती है। शिक्षा उन्हीं शक्तियों या गुणों का विकास करती है। पूर्णता बाहर से नहीं आती वरन् मनुष्य के भीतर छिपी रहती है। सभी प्रकार का ज्ञान मनुष्य की आत्मा में निहित रहता है। गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त अपने प्रतिपादन के लिए न्यूटन की खोज की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। वह न्यूटन के मस्तिष्क में पहले से ही विद्यमान था। जब समय आया तो न्यूटन ने केवल उसकी खोज की। विश्व का असीम ज्ञान-भंडार मानव मन में निहित है, बाहरी संसार केवल एक प्रेरक मात्र है, जो अपने ही मन का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करता है। पेड़ से सेव के गिरने से न्यूटन ने कुछ अनुभव किया और मन का अध्ययन किया। उसने अपने मन में पूर्व से स्थित विचारों की कड़ियों को व्यवस्थित किया और उसमें एक नयी कड़ी को देखा, जिसे मनुष्य गुरूत्वाकर्षण का नियम कहते हैं।

अतएव सभी ज्ञान, चाहे वह संसारिक हो अथवा परमार्थिक, मनुष्य के मन में निहित है। यह आवरण से ढ़का रहता है, और जब वह आवरण धीरे-ध् ाीरे हटता है, तो मनुष्य कहता है कि ‘‘मुझे ज्ञान हो रहा है।’’ ज्यों-ज्यों आवरण हटने की प्रक्रिया या आविष्कार की प्रक्रिया बढ़ती जाती है त्यों-त्यों मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि होती जाती है। जिस मनुष्य पर यह आवरण पूर्णत: पड़ा रहता है, वह मूढ़ या अज्ञानी है और जिस मनुष्य पर से यह आवरण बिल्कुल हट जाता है, वह सर्वज्ञानी मनुष्य हो जाता है। जिस प्रकार एक चकमक पत्थर के टुकड़े में अग्नि निहित रहती है, उसी प्रकार मनुष्य के मन में ज्ञान निहित रहता है। उद्दीपक कारण ही वह घर्षण है, जो उठा ज्ञानाग्नि को प्रकाशित कर देता है।

स्वामी विवेकानन्द सर्वहितकारी, सर्वव्यापी एवं मानव-निर्माण करने वाली शिक्षा पर जोर देते थे। वे मानव की स्वतंत्रता को मूल बिन्दु मानकर राजनीति से परे मानव निर्माण की योजना के सर्मथक थे। शिक्षा को धर्म से जुड़ा मानकर विवेकानन्द ने दोनों की मानव के अन्दर पार्इ जाने वाली प्रवृत्ति को उजागर करना ध्येय माना। मानव-कल्याण का मूल बीज शिक्षा को मानकर विवेकानन्द ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की योजना बनार्इ। उन्होंने शिक्षा की एक उदार एवं संतुलित प्रारूप देश के सामने रखा ‘‘आवश्यकता है विदेशी नियंत्रण हटाकर हमारे विविध शास्त्रों, विद्याओं का अध्ययन हो और साथ ही साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य विज्ञान भी सीखा जाये। हमें उद्योग-धंधो की उन्नति के लिए यांत्रिक शिक्षा भी प्राप्त करनी होगी जिससे देश के युवक नौकरी ढूंढ़ने के बजाय अपनी जीविका के लिए समुचित धनोपार्जन भी कर सके और दुर्दिन के लिए कुछ बचा भी सके।

शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए स्वामी विवेकानन्द ने ज्ञान दान को श्रेष्ठ दान बताया। उन्होंने चार प्रकार के दान बताये: धर्म (आध्यात्मिक ज्ञान का) दान, ज्ञान दान, प्राण दान और अन्न दान। इन सब में उन्होंने प्रथम दो दानों को श्रेष्ठ दान माना। वे ज्ञान-विस्तार को भारत की सीमाओं से बाहर भी ले जाना चाहते हैं। भारत ने संसार को अनेक बार आध्यात्मिक ज्ञान दिया। स्वामी जी ने धर्म प्रचार और लौकिक विद्या दोनों को ही मानव के लिए आवश्यक बताया पर उनका स्पष्ट मत था कि ‘‘यदि लौकिक विद्या बिना धर्म के ग्रहण करना चाहो, तो मैं तुमसे साफ कह देता हूँ कि भारत में तुम्हारा ऐसा प्रयास व्यर्थ सिद्ध होगा- वह लोगों के हृदयों में स्थान प्राप्त नहीं कर सकेगा।

वे कहते थे भारतीयों में आत्मविश्वास भरने के लिए उन्हें आत्मतत्व की जानकारी देनी चाहिए। वे कहते हैं- ‘‘अब उनको (वंचितों को) आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच-से-नीच में भी आत्मा विद्यमान है। वह आत्मा, जो कभी न मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है, न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है, जो अमर है, अनादि और अनन्त है, शुद्ध स्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। इस प्रकार विवेकानन्द ने शिक्षा के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की संभावना पर अत्यधिक बल दिया।

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